
श्रीमद्भगवद्गीता का मंगलाचरण
जिस प्रकार किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत में ईश्वर की कृपा माँगी जाती है, उसी प्रकार गीता पाठ के आरंभ में मंगलाचरण किया जाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता : गीता माहात्म्य
श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धर्मग्रंथ ही नहीं है, बल्कि यह स्वयं ईश्वर की वाणी और मोक्ष प्राप्ति का एक मार्ग है।

पहला अध्याय : अर्जुन विषाद योग
युद्ध के आरंभ में, अर्जुन अपने संबंधियों और गुरुजनों को देखकर विषाद से भर गए, उन्होंने अपने शस्त्रों का त्याग कर दिया और युद्ध करने की इच्छा नहीं जताई।

दूसरा अध्याय : सांख्य योग
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह सत्य समझाया कि आत्मा अविनाशी है और शरीर नश्वर है, और यह भी दर्शाया कि निष्काम कर्म ही मुक्ति का मार्ग है।

तीसरा अध्याय : कर्मयोग
कर्मफल का त्याग करके, निष्काम भाव से अपने धर्म या कर्तव्य का पालन करने पर जोर दिया जाता है।

चौथा अध्याय : ज्ञान-कर्म-सन्यास-योग
ईश्वर को जानने के लिए ज्ञान प्राप्त करने के महत्व को समझाया गया है, जो सभी कर्मों के बंधनों को तोड़ देता है।

पाँचवाँ अध्याय : कर्म-सन्यास-योग
कर्म-त्याग और कर्मयोग के बीच तुलना की जाती है और यह दिखाया जाता है कि निष्काम कर्म ही श्रेष्ठ है।

छठा अध्याय : आत्मसंयम योग (ध्यान योग)
योग के माध्यम से मन को नियंत्रित करने और आत्म-साक्षात्कार की विधि को समझाया गया है।

सातवाँ अध्याय : ज्ञान-विज्ञान-योग
श्रीकृष्ण अपनी परम सत्ता का वर्णन करते हैं और ईश्वर के प्रति भक्ति और ज्ञान को एकीकृत करने की बात कहते हैं।

आठवाँ अध्याय : अक्षर-ब्रह्म-योग
मृत्यु के समय किसका स्मरण करने से मोक्ष प्राप्त होता है, इस विषय पर चर्चा की गई है।

नवाँ अध्याय : राजविद्या-राजगुह्य-योग
भक्ति के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करने के सरल और गुप्त मार्ग की बात कही गई है।

दसवाँ अध्याय : विभूति-योग
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अपनी दिव्य विभूतियों (ऐश्वर्य, शक्तियाँ या महिमा) का वर्णन करते हैं।

ग्यारहवाँ अध्याय : विश्व-रूप-दर्शन-योग
अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य विश्वरूप का दर्शन किया और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को समझा।

बारहवाँ अध्याय : भक्ति-योग
भक्ति के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करने के मार्ग को सर्वोच्च और सबसे सरल मार्ग के रूप में समझाया गया है।

तेरहवाँ अध्याय : क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विभाग-योग
शरीर को 'क्षेत्र' और आत्मा को 'क्षेत्रज्ञ' कहकर, प्राकृतिक (जड़) और अप्राकृतिक (चेतन) वस्तुओं के बीच का अंतर समझाया गया है।

चौदहवाँ अध्याय : गुणत्रय-विभाग-योग
सत्त्व, रज, और तम – इन तीन गुणों का वर्णन किया गया है कि ये किस तरह जीवों को प्रभावित करते हैं।

पंद्रहवाँ अध्याय : पुरुषोत्तम-योग
यह अध्याय हमें बताता है कि इस संसार रूपी वृक्ष को वैराग्य रूपी शस्त्र से कैसे काटा जाए और कैसे भगवान को प्राप्त किया जाए।

सोलहवाँ अध्याय : दैवासुर-संपद्-विभाग-योग
दैवीय (दैव) और आसुरी (असुर) गुणों के बीच का अंतर और उनके परिणामों का वर्णन किया गया है।

सत्रहवाँ अध्याय : श्रद्धात्रय-विभाग-योग
तीन प्रकार की श्रद्धा, उनका गुणों के आधार पर विभाजन और उसी के अनुसार कर्मों के प्रकारों की व्याख्या की गई है।

अठारहवाँ अध्याय : मोक्ष-संन्यास-योग
कर्मों के त्याग और संन्यास के अंतिम रूप की व्याख्या की गई है, और निष्काम कर्म के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति की बात कही गई है।
